हम किस गली जा रहे हैं?

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ख़ामोशी। ये बहुत संगीन और दुर्लभ अभिव्यक्ति है। अक्सर वार्तालाप में ख़ामोशी हार के भी जीत जाती है। कितने मुद्दे है जिसपे मैंने अब शांत रहना सीख लिया है, इसलिए नहीं कि मेरे अल्फ़ाज़ कम पड़ गए परंतु इसलिए क्योकि मैंने ख़ामोशी का रुतबा समझ लिया है।

पर फिर कभी जिंदगी में कुछ ऐसे लम्हें आते है कि वो आपको अपनी सोच बयाँ करने पर विवश कर देते है। ये ऐसा ही एक वाक्या है जो लगेगा सामान्य सा परन्तु है बहुत गंभीर।

कुछ अरसे पहले, मैं और मेरी एक जाननेवाली अपने बचपने की बात कर रहे थे। बात शुरू हुई थी दूरदर्शन से जो की चित्रहार से होते हुए, मोगली को छूते हुए, बकरा किस्तो तक गयी।

“बकरा किस्तों एकदम जुदा है, कितनी बचपन को यादें छिपी है इसमें।” मैं ये कह के अपने बाल्यावस्था के दिनों में गोता लगाने को तैयार ही हुई थी की मेरे ख़याली स्विमिंग पूल से पानी खींच लिया गया।
“हाँ था बड़ा मज़ेदार, लेकिन यें लोगो की भाषा मुझे घर नहीं ले जानी। मुसीबत है।”
पल भर लगा सामने वाले की सोच समझने में। अफ़सोस ये कि जिसने ये कहा उसे इस बात की गहरायी ही नहीं पता चली। वो तो हस के चली गयी, पर ये और इसके जैसे अनेक सवालों का फाटक खोल गयी मेरे ज़हन में।

यह पहली बार नहीं था कि मैंने किसी को इस तरह कि बात बोलते सुना हो। और हाँ ये आखिरी बार भी नहीं होगा कि मैं किसी की सोच पे आश्चर्य ज़ाहिर करूँ। मुझे तो लगता था कि मुझे जितनी ज़्यादा भाषाओं का ज्ञान हो, उतना बेहतर। अक्सर सोचती हूँ कि सिर्फ हिंदी,अंग्रेजी और उर्दू का ही क्यों ज्ञान है मुझे? काश बहुतेरी और भाषाओं का लुत्फ़ उठा सकती ।
दूसरा और गहन सवाल कि लोग रंग, भाषा और खाने में भी असमानता कैसे खोज लेते है?

एक दो बार आवाज़ भी उठायी मैंने इस आक्रामक सोच पे। लोगो ने समझा नहीं अलबत्ता आँखों ही आँखों में तंज़ कसे। भली भाति वाकिफ़ हूँ उस नज़रिये से, आखिरकार मैं दो धारी तलवार पे जो चल रही हूँ।

शुरूआती दिनों में लगता था की “लोग मेरे बारे में ऐसा सोचते है”? झूठ नहीं बोलूंगी, दुखता था, क्योकि इंसान हूँ और जज़्बात रखती हूँ। शायद इस बात से फर्क पड़ता था कि लोग मेरे बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं। अब लगता है “लोग ऐसा क्यों सोचते है”? अब भी बुरा लगता है पर अपने लिए नहीं, उनके लिए। दिल ही दिल बुदबुदा लेती हूँ, “ईश्वर तुम्हे सद्बुद्धि दे।”

बहुत कम लोग ये बात समझ पाते है कि भाषा का प्रान्त से भले ही जुड़ाव है, विशिष्टता नहीं। बहुत कम लोग ये बात समझ पाते है कि आपका वजूद और आपकी आवाज़, आपकी है, आपके मज़हब की नहीं। वक़्त लगा परन्तु ये समझ आ गया कि जब वो नहीं समझते, तो आप समझ जाते है कि लोगो से समझदारी की उम्मीद करना बेवकूफी है।

आसान नहीं है अपने आप पे संयम पाना। लोगो के शब्दों का प्रभाव, मानसिकता और सोच आपको बेकाबू कर देती है। अक्सर खून खौलता है और बात मुँह तक आ के रुक जाती है। लेकिन किसी के अपमानजनक वाक्य के बाद के वो दो क्षण आपके लिए बहुत ही अहम् होते है। अगर उस वक़्त आप चुप्पी साध गए तो जीत आपकी, आपके वक़्त की, आपकी जुबां की।

मुझे गलत मत समझिये। मैं कतई ये नहीं कहती कि दब जाओ, किसी के सामने घुटने टेक दो। किसी के सामने अपने स्वच्छंद विचार रखना, सभय्ता से, आपका प्राथमिक हक़ है। पर उम्र आपको बहुत कुछ महसूस करवा देती है और उन्ही बड़ी सीख में से एक ये है की दीवारों से सर नहीं फोड़ते । समझाओ उसे जहां सुधार की कोई गुंजाईश हो वरना व्यर्थ में अपना दिमाग़ ज़ाया क्यों करना और अपने सब्र का इम्तेहान क्यों लेना?
मैं खासतौर से अपनी युवा पीढ़ी से मायूस रहती हूँ। अक्सर देखती हूँ इन्हे सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनल पे वार्तालाप और बहस करते हुए। सोचती हूँ हम गलत कहाँ जा रहे है? इतना अतिवादी नजरिया कैसे हो सकता है इन लोगो का? इतनी नफरत पनपती कैसे है?

मेरा मानना है कि नफरत, किसी भी जाती विशेष या समुदाय के लिए, घर से आती है। परवरिश इन्सान के व्यक्तित्व में बहुत बड़ा योगदान देती है। बच्चे अपने परिजनों की सोच से पहचान रखते हुए कब उसे ग्रहण कर लेते है उन्हें पता ही नहीं चलता। नफरत कभी एक रात में नहीं पनपती, सालो तक इसे दिल में सींचा जाता है, इसकी जड़ें गहराती है और फिर उस इंसान की बोली और हरकत में नकारात्मकता झलकने लगती है। अफ़सोस ये है की हमारे समाज का पढ़ा लिखा वर्ग भी इस धारणा से अछूता नहीं है। वर्षों से मैंने सबसे खराब सांप्रदायिक टिप्पणियों को इस तथाकथित शिक्षित भीड़ से आते देखा है। दुःख है परंतु हैरानी नहीं क्योकि सिर्फ शिक्षा आपको शिक्षित नहीं करती। आपकी समझदारी, नियत और सकारात्मकता आपको आप बनाती है.

ताज़ा हालातों को देखते हुए, मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए आशान्वित नहीं हूं। जो ज़हर ज़बान पे कम पड़ गया तो लोगो ने अब सोशल मीडिया के द्वारा तेज़ाब की छींटे मारनी शुरू कर दी हैं। सोचती हूँ की अपने बच्चों को इस प्रतिकूल मौहाल से कैसे बचाऊंगी?

खैर, मुद्दे अभी और भी है पर आज के लिए इतना ही काफ़ी है। वक़्त बड़ा ताकतवर है, क्या पता आने वाली पीढ़ी अपनी सोच से कुछ अलग, कुछ बेहतर नजरिया और लोगो में आपसी मोहब्बत ले आये। लेकिन उसकी मुहीम हम ही को करनी पड़ेगी, हैं ना?

समझदारी, इंसानियत और प्यार सब मौजूद है इस दुनिया में, काश ये सबको मयस्सर भी हो।

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